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पंडालों की चकाचौंध में मानों गुम होकर रह गयी है भागलपुर की पुरातन दुर्गा-पूजा की परम्परा

शिव शंकर सिंह पारिजात, भागलपुर। पूरे अंग प्रक्षेत्र  भागलपुर में दुर्गा-पूजा का पर्व अनुष्ठानपूर्वक व्यापक पैमाने पर मनाया जाता है। आज यहां तकरीबन 200 स्थानों पर
देवी की प्रतिमाएं बैठाई जाती हैं। ब्रिटिश-काल में पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर स्थित शहरों में बंगाल के बाद भागलपुर के महाशय ड्योढ़ी में ही विशिष्टता पूर्वक दुर्गा-पूजा आयोजित होती थी। तभी तो यह कहावत चल पड़ी थी कि ‘काली कलकत्ते की और दुर्गा महाशय ड्योढ़ी की’। अंग-बंग संस्कृति की विरल समन्वस्थयली  होने के कारण भागलपुर के पूजा की खासियत ये रही कि यह एक विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल में आयोजित होता था जिसमें अंग व बंग की सुरभि मिश्रित रहती थी। पूजा आज भी भागलपुर में विशद् पैमाने पर समरोहपूर्वक मनाई जाती है। पर अब वो पुरानी बात नहीं रही। विशाल पंडालों व डेकोरेशन की होड़ तथा म्यूजिक व आरकेस्ट्रा की शोर में मानों पुरातन परम्पराएं और अनुष्ठानिक शालीनता मानों गुम सी होती जा रही है।
नाथनगर-चम्पानगर के महाशय ड्योढ़ी.
पुराने दिनों को याद करें तो भागलपुर के नाथनगर-चम्पानगर के महाशय ड्योढ़ी में  आयोजित होनेवाली दुर्गा पूजा की ख्याति दूर-दूर तक रही है जिसकी शुरुआत महाशय परिवार के श्रीराम घोष के द्वारा की गई थी जिन्हें बादशाह अकबर ने 1604 में कानूनगो नियुक्त किया था। यहां की पूजा का इतिहास 400 साल पुराना बताया जाता है। पर कुछ पुराने लोग इसे 250 वर्ष पुराना मानते हैं। यहां की खासियत ये है कि यहां मेढ़ पर मेढ़ चढ़ता है, अर्थात भगवती के मेढ़ के उपर  भगवान शंकर का मेढ़ स्थापित किया जाता है। बोधनवमी के दिन यहां कौड़ी लुटाये जाने की परम्परा है, जो यहां की खासियत है।यहां विशाल मेला लगता था, तरह-तरह की दूकानें सजती थीं और बगल का सीटीएस मैदान बैलगाड़ियों से भर जाता था। बड़ी संख्या में दूर-दराज के लोग दर्शन को आते थे और अंगभूमि की पूरी संस्कृति मानों साकार हो उठती थी।
सरकार बाड़ी आपनी पहचान आज भी बना रखा है.
महाशय ड्योढ़ी, मिरजानहाट, मोहद्दीनगर, अलीगंज, मंदरोजा, लहेरीटोला आदि मुहल्लों के आयोजनों में जहां अंगभूमि की खूशबू विखरती थी, वहीं नगर के बंगाली टोला का क्षेत्र बंग संस्कृति की इंद्रधनुषी छंटा से निखर उठता था। यहां के मानिक सरकार चौक स्थित सरकार बाड़ी की दुर्गा पूजा 238 वर्ष पुरानी है। मूल रुप से यहां की पूजा बंगाल के वन्य पाड़ा (बन्नापाड़) से प्रारंभ हुई थी। किंतु 1779 में जब सरकार परिवार भागलपुर आकर बस गया तो यहीं पूजा मनाने लगा। यहां की देवी मूर्ति पारम्परिक ऐश्वर्य से युक्त लोककल्याणी स्वरुपा हैं, इस कारण सरकार बाड़ी की मान्यता जाग्रत शक्ति-स्थल के रूप में है। पहले यहां पूजा में नाटक-जात्रा खेले जाते थे जिसमें कभी प्रसिद्ध सिने अभिनेता अशोक कुमार के मामा आदमपुर राजबाटी निवासी शिला बाबू और शानू बाबू ने भी भाग लिये थे। पर अब वो पुरानी बात रही नहीं। इसी तरह मशाकचक की दुर्गा बाड़ी का इतिहास 200 साल से भी पुराना है। एक समय था जब  प्रख्यात साहित्यकार शरतचंद्र, बनफूल व पालित जैसे मशहूर लोग यहां की पूजा में शिरकत करते थे। बंगाली समाज के पूजा अनुष्ठान के केंद्रीय स्थल के रुप में प्रतिष्ठित मशाकचक में दिन में नियम-निष्ठा के साथ देवी की पूजा-आराधना, संध्या समय ढोल-ढाक की टंकार के साथ आरती व रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा साहित्यिक गोष्ठी के आयोजन होते थे। दशमी के दिन सिन्दूर-खेला में शरीक होने पूरे शहर की महिलाएं उमड़ पड़ती थीं। नगर के मानिक सरकार घाट के निकट स्थित कालीबाड़ी में दुर्गा पूजा का आयोजन स्थानीय बंगाली परिवारों के द्वारा 1941 से किया जा रहा है। वैसे इस मंदिर में सबसे पहले देवी काली की स्थापना 1926 में हुई थी जो ‘दक्षिणी काली’ के नाम से प्रसिद्ध है। पुराने लोग बताते हैं कि पहले यहां एक बरगद का पेड़ था जहां लोग नियमित रूप से पूजा अर्चना किया करते थे जहां आज कलात्मक वास्तु कला से सज्जित एक सुंदर मंदिर खड़ा है। सरकार दुर्गा बाड़ी और मशाकचक दुर्गा बाड़ी की तरह कालीबाड़ी में भी बांग्ला विधि-विधान के साथ पूजा होती है। कथाशिल्पी शरत् चंद्र का ननिहाल कालीबाड़ी के निकट है। शरत् ने अपनी कई रचनाओं में कालीबाड़ी की दुर्गापूजा सहित जगद्धात्री पूजा व कालीपूजा की चर्चा की है।
युबक संघ के पूजा का प्रचार शहर के चौक चौराहा पर.

बीते दिनों की पूजा की बात करें तो लाजपत पार्क के मेले, खुले मैदान में राम-रावण युद्ध व रावण-वध का लोग बेसब्री से इंतजार करते थे। मिरजानहाट के भरत-मिलाप के दर्शन हेतु बड़ी संख्या में लोग उमड़ते थे। नाथनगर के सीटीएस और गोलदारपट्टी में रामलीला की तैयारियां महीनों पूर्व शुरू हो जाती थी। पर अब तो सिर्फ रस्म अदायगी मात्र होती है।9
दुर्गा-पूजा आज भी भागलपुर में बड़े पैमाने पर आयोजित होती । मेले सजते हैं। लोग पूरे उत्साह से पूजा का आनंद उठाते हैं। नये दौर, नये युग और तकनीकी उन्नति के जमाने के मद्देनजर यह ठीक भी है। पर मेले के चकाचौंध में यदि हम अपनी पुरातन संस्कृति व परम्पराओं को सहेजकर न रख सकें तो अगली पीढ़ियों के लिये क्या कुछ शेष रह जायेगा।